अनूर्मिमत्वम् इस सिद्धि को प्राप्त करने के बाद साधक का मन शांत हो जाता है और उसे किसी भी चीज की इच्छा नहीं रहती। उसके मन पर कोई भी वासना अधिकार नहीं कर सकती। उनकी सभी इन्द्रियां उनके वश में रहती हैं और उसका कोई उलंघन नहीं कर सकता। ऐसा व्यक्ति मनुष्य होते हुए भी देवता तुल्य हो जाता है। महाबली हनुमान भी सदैव अपनी इन्द्रियों को अपने वश में रखते थे। वे प्रसन्नता, क्रोध, दुःख इत्यादि मन के सभी विकारों से परे थे।
दूरश्रवण जिस साधक को ये सिद्धि प्राप्त होती है वो धीमी से धीमी आवाज भी बड़ी दूर से सुन लेता है। कहा जाता है कि इस सिद्धि को प्राप्त करने पर साधक १ योजन दूर से भी की गयी बात को सुन सकता है। १ योजन करीब ७६ मील या १२३ किलोमीटर के बराबर की दुरी मानी जाती है।
दूरदर्शनम् इस सिद्धि को प्राप्त करने के बाद साधक अत्यंत दुरी तक देखने में सफल हो पाता है। इस के साथ ही साधक अदृश्य चीजों को भी देख सकता है। गरुड़ जाति में ये सिद्धि जन्मजात होती है। इसी सिद्धि के बल पर जटायु के बड़े भाई सम्पाती ने १०० योजन बड़े समुद्र के पार देख कर वानरों को माता सीता का पता बता दिया था। अपने विराट स्वरुप में हनुमान भी योजनों दूर की चीजों को देख सकते थे।
मनोजव: इस सिद्धि को प्राप्त करने के बाद साधक किसी के भी मन की बात जान सकता है। अगर साधक के सामने कोई कुछ सोच रहा हो तो साधक केवल उसके नेत्रों में देख कर ये जान सकता है कि वो व्यक्ति क्या सोच रहा है। इस सिद्धि से आप आने वाले शत्रु से अपनी रक्षा कर सकते हैं और कोई आपके साथ छल नहीं कर सकता।
कामरूपम् इस सिद्धि को प्राप्त करने वाला साधक अपनी इच्छा अनुसार कोई भी रूप धारण कर सकता है। हमनुमनजी ने अपनी इस सिद्धि के कारण कई रूप धारण किये। श्रीराम और लक्ष्मण से पहली बार मिलते समय हनुमान एक ब्राह्मण का रूप बनाते हैं। वहीँ माता सीता से वो एक वानर के रूप में मिलते हैं।
परकायाप्रवेशनम् ये बहुत प्रसिद्ध सिद्धि है। इस सिद्धि को प्राप्त करने के बाद साधक अपना शरीर त्याग कर किसी अन्य के शरीर में प्रवेश कर सकता है। इस सिद्धि में साधक अपनी आत्मा को किसी मृत शरीर में प्रवेश करवा कर उसे जीवित भी कर सकता है। हालाँकि इस सिद्धि में बड़े सावधानी की आवश्यकता है क्यूंकि जब साधक की आत्मा किसी और शरीर में हो तब साधक के अचेत शरीर को कोई जला दे तो वो पुनः अपने शरीर को प्राप्त नहीं कर सकता। अतः ऐसा कहा गया है कि साधक को अत्यंत गोपनीय स्थान पर अपना शरीर त्यागना चाहिए या किसी विश्वासपात्र को अपने शरीर की रक्षा को नियुक्त करना चाहिए।
स्वछन्द मृत्युः इसे इच्छा मृत्यु भी कहा जाता है। इस सिद्धि को प्राप्त साधक अपनी इच्छा अनुसार ही मृत्यु का वरण कर सकता है। अगर वो ना चाहे तो उसकी इच्छा के बिना स्वयं काल भी उसके प्राण नहीं ले सकते। हनुमानजी सप्त चिरंजीवियों में से एक हैं अर्थात कल्प के अंत तक जीवित रहने वाले हैं। महाभारत में भी पितामह भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था।
देवानां सह क्रीडा अनुदर्शनम् इस सिद्धि को प्राप्त करने पर साधक को देवताओं की कृपा स्वतः ही प्राप्त हो जाती है। उसे देवताओं के दर्शन और सानिध्य प्राप्त होता है। इस सिद्धि को प्राप्त साधक स्वयं देवताओं के समान ही तेजस्वी और शक्तिशाली बन जाता है और उसकी गिनती भी देवताओं में होने लगती है। पवनपुत्र को भी अपनी इच्छा से देवों के दर्शन करने की स्वच्छंदता प्राप्त थी।
यथासंकल्पसंसिद्धिः इस सिद्धि को प्राप्त करने पर साधक की समस्त इच्छाएं पूर्ण होती है। वो जो भी संकल्प लेता है वो अवश्य पूर्ण होता है। यदि साधक के संकल्प पूर्ति में कोई बाधा हो तो स्वयं देवता साधक की सहायता करते हैं। ऐसा कोई संकल्प नहीं था जो महाबली हनुमान पूर्ण नहीं कर सकते थे। इसी सिद्धि के कारण वे एक ही रात में हिमालय शिखर उखाड़ कर लंका ले आये थे।
आज्ञा अप्रतिहता गतिः इस सिद्धि को प्राप्त साधक को कही भी स्वछन्द आने जाने की स्वतंत्रता होती है। उनकी गति में कुछ बाधक नहीं बनता।
बजरंगबली का वेग भी स्वयं पवन के सामान ही था। उनकी गति उनकी आज्ञा अनुसार ही कम अथवा अधिक होती थी और कोई भी उनके वेग को रोक नहीं सकता था। इसी सिद्धि के कारण हनुमान एक ही छलांग में १०० योजन चौड़ा समुद्र लाँघ गए थे।
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