"Lajja" Nari ka Abhushan / " लज्जा " नारी का सच्चा आभूषण


मगध की सौंदर्य साम्राज्ञी वासवदत्ता उप-वन विहार के लिए निकली उसका साज शृंगार उस राजवधू की तरह था,जो पहली बार ससुराल जाती है, एका-एक दृष्टि उप-वन ताल के किनारे स्फटिक शिला पर बैठे तरुण संन्यासी उपगुप्त पर गई चीवरधारी ने बाह्य सौंदर्य को अंतर्निष्ठ कर लिया था और उस आनंद में कुछ ऐसा निमग्न हो गया कि उसे बाह्य जगत की कोई सुध न रही थी। हवा में पायल की स्वर झंकृति और सुगंध की लहरें पैदा करती वासवदत्ता समीप जा खड़ी हुई भिक्षु ने नेत्र खोले वासवदत्ता ने चपल-भाव से पूछा महामहिम बताएँगे नारी का सर्वश्रेष्ठ आभूषण क्या है, जो उसके सौंदर्य को सहज रूप से बढ़ा दे-

उत्तर दिया सहज का क्या अर्थ है आत्मा जिन गुणों को बिना किसी बाह्य इच्छा आकर्षण भय या छल के अभिव्यक्ति करे उसे ही सहज भाव कहते हैं, सौन्दर्य को जो बिना किसी कृत्रिम साधन के बढ़ाता हो, नारी का वह भाव ही सच्चा आभूषण है। किंतु यह वासवदत्ता समझ न सकी। उसने कहा मैं स्पष्ट जानना चाहती हूँ यों पहेलियों में आप मुझे न उलझाएँ उपगुप्त अब गंभीर हो गए और बोले भद्रे, यदि आप और स्पष्ट जाननी चाहती हैं तो इन कृत्रिम सौन्दर्य परिधान और आभूषणों को उतार फेंकिए, पैरों की थिरकन के साथ वासव दत्ता ने एक-एक आभूषण उतार दिए। संन्यासी निर्निमेष वह क्रीड़ा देख रहा था, निश्छल मौन विचार-मग्न वासवदत्ता ने अब परिधान उतारने भी प्रारंभ कर दिए। साड़ी,चुनरी लहंगा और कंचुकी सब उतर गए शुभ्र निर्वसन देह के अतिरिक्त शरीर पर कोटपट-परिधान शेष नहीं रहा तपस्वी ने कहा-देवि किंचित मेरी ओर देखिए किंतु इस बार वासवदत्ता लज्जा से आविर्भूत ऊपर को सिर न उठा सकी। तपस्वीने कहा देवि यही लज्जा ही नारी का सच्चा आभूषण है और जब तक उसने वस्त्राभूषणपु धारण किए उपगुप्त वहाँ से जा चुके थे।

Post a Comment

0 Comments